समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा /Meaning and Definition of Sociology /samaajashaastr ka arth evan paribhaasha

समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of Sociology




शाब्दिक रूप से 'Sociology' शब्द दो विभिन्न स्थानों के शब्दों से मिलकर बना है। पहला शब्द 'Socius' है जिसकी उत्पत्ति लेटिन भाषा से हुई है तथा दूसरा शब्द 'Logus' है जो ग्रीक भाषा से लिया गया है। इं शब्दों का अर्थ क्रमशः 'समाज' तथा 'शास्त्र' है। इस प्रकार 'Sociology' का अर्थ 'समाज' के 'विज्ञान' से है। 'Sociology' शब्द का निर्माण दो विभन्न स्थानों के शब्दों से होने के कारण जे. एस. मिल ने इस नाम को 'अवैध' कहा तथा इसकी जगह एक दूसरे नाम 'Ethology' का प्रस्ताव रखा जिसके अन्दर मानव समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जा सके। लेकिन मिल के इस प्रस्ताव की कटु आलोचना की गयी। हरबर्ट स्पेन्सर ने 'Sociology' शब्द को ही अधिक उपयुक्त मानते हुए यह निष्कर्ष दिया कि "प्रतीकों की सुविधा और सुचकता, उनकी उत्पत्ति सम्बन्धित वैधता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है।" इसके बाद से सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को 'समाजशस्त्र' के नाम से ही सम्बोधित किया जाने लगा। समाजशास्त्र के अर्थ को वैज्ञानिक रूप से तभी समझा जा सकता है, जबकि सबसे पहले इससे सम्बन्धित दोनों शब्दों-'समाज' और 'शास्त्र' की भली-भाँति स्पष्ट कर लिया जाये समाज व्यक्तियों का समूह न होकर इससे बिल्कुल भिन्न है। लेपियर का कथन है, "समाज मनुष्यों के एक समूह का नाम नहीं है, बल्कि मनुष्यों के बीच होने वाली अन्तर्क्रियाओं और इनके प्रतिमानों को ही हम समाज कहते हैं। " शस्त्र अथवा विज्ञान का अर्थ क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान से है। क्यूबर के अनुसार, "विज्ञान अवलोकन और पुनः अवलोकन के द्वारा विश्व में पायी जाने वाली समानताओं की खोज करने वाली एक पद्धति है। यह एक ऐसी पद्धति है जिसके परिणाम सिद्धान्तों के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं तथा ज्ञान के क्षेत्र में व्यवस्थित रखे जाते हैं।" इस प्रकार 'समाज' और 'शास्त्र' और 'शस्त्र' शब्दों का अलग-अलग अर्थ समझने के बाद हम निष्कर्ष पर पहुचेते हैं कि सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययन करने वाले विज्ञान का ना ही समाजशास्त्र है।
साधरणतया सभी समाजशास्त्री यह स्वीकार करते हैं की समाजशास्त्र 'समाज का अध्ययन' है, लेकिन फिर भी विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र को भिन्न-भिन्न आधारों पर परिभाषित किया है। अध्ययन की सरलता के लिए समाजशास्त्र की सभी परिभाषाओं को चार प्रमुख भागों मे विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है :

(1) समाजशास्त्र समाज का अध्ययन - Sociology The Study of Society

इस वर्ग में वे समाजशास्त्री आते हैं जिनके अनुसार समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज का व्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययन है। उन्होंने समाजशास्त्र को ज्ञान की एक ऐसी शाखा के रूप में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है जो सम्पूर्ण समाज का एक समग्र इकाई के रूप में अध्ययन करती है। दुर्खीम, गिडिंग्स, समनर, वार्ड आदि समाजशास्त्री इसी वर्ग में आते हैं।

(2) समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन - Sociology The Study of Social Relations

इस वर्ग के समाजशास्त्रियों की संख्या सबसे अधिक है। इनके अनुसार, समाज व्यक्तियों का एकत्रीकरण नहीं है बल्कि यह सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था है। इसलिए समाजशास्त्र को एक ऐसे विज्ञान के रूप में स्पष्ट करना उचित है जो 'सामाजिक सम्बन्धों' का अध्ययन कहना दो भिन्न विशेषताओं की ओर संकेत नहीं करता। इस दृष्टकोण से पहले तथा दूसरे वर्ग की परिभाषाओं में कोई आधारभूत अन्तर नहीं है।

(3) समाजशास्त्र सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन - Sociology The Study of Social Interactions

गिनसबर्ग, सिमैल, हाबहाउस तथा ग्रीन आदि समाजशास्त्रियों का विचार है कि समाज के निर्माण में सामाजिक सम्बन्धों की अपेक्षा सामाजिक अन्तर्क्रियाएँ अधिक महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक सम्बन्ध तो संख्या में इतने अधिक हैं की उनका व्यवस्थित अध्ययन करना भी कठिन है। ऐसी स्थिति में यदि हम समाजशास्त्र को केवल 'सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन' कहकर परिभाषित करें तो इसकी प्रकृति को अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

(4) समाजशास्त्र समूहों का अध्ययन - Sociology Study of Groups

हेनरी जान्सन जैसे प्रख्यात समाजशास्त्री ने आरम्भ में ही यह स्पष्ट किया कि 'समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का अध्ययन' है। आपको अनुसार समाज की धारणा बहुत विद्वादपूर्ण है, इसलिए समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में ही परिभाषित किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण से समाजशास्त्र को 'समूहों के ढाँचे, संगठन, इन्हों बनाने वाली और इनमें परिवर्तन लाने वाली प्रक्रियाओं तथा समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन' कहकर परिभाषित किया जा सकता है।
उपर्युक्त विचारधाराओं से बड़ी भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है। हमारे सामने महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है की फिर हम समाजशास्त्र को किस दृष्टिकोण से परिभाषित करें। वास्तविकता यह है कि अलग-अलग समाजशास्त्रियों के विचारों की भिन्नता केवल इस समस्या से सम्बन्धित है कि समाज को किस दृष्टिकोण से देखा जाय। कुछ व्यक्ति समाज का तात्पर्य सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था से समझते हैं, कुछ के अनुसार समाज का निर्माण सामाजिक अन्तर्क्रियाओं से होता है, जबकि कुछ विद्वान सामाजिक समूहों तथा समाज के बीच कोई भी अन्तर नहीं मानते। इसके पश्चात् भी अधिकांश समाजशास्त्री यही स्वीकार करते हैं कि समाज का निर्माण सामाजिक सम्बन्धों से होता है। इस प्रकार समाजशास्त्र एक ऐसे विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करता है। इसी आधार पर वार्ड का कथन है, "समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है। " इस प्रकार प्रस्तुत विवेचन में हम सर्वप्रथम 'सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था' के आधार पर समाजशास्त्र को परिभाषित करेगें।
माइकैवर व पेज का कथन है, "समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के 'विषय' में है, सम्बन्धों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।" गिडिंग्स का विचार है कि "समाजशास्त्र समग्र रूप में समाज का व्यवस्थित वर्णन और व्याख्या है।" दुर्खीम के अनुसार "समाजशास्त्र" सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान है।" सामूहिक प्रतिनिधान समाज की प्रतिनिधि विशेषता है तथा इनमें सामूहिक चेतना का समावेश होता है। लगभग इन्ही शब्दों में जे. एफ. क्यूबर का कथन है कि "समाजशास्त्र को मानवीय सम्बन्धों के वैज्ञानिक ज्ञान की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।"
इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र की वास्तविक विषय-वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है। हम एक उदाहरण की सहायता से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न करेगे कि समाजशास्त्र में समाज अथवा सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन का इतना अधिक महत्व क्यों हैं ? अध्ययन की सरलता के लिए हम समाज की तुलना एक फूलमाला से कर सकते हैं। जब बहुत-से फूलों को एक लड़ी में अथवा पारस्परिक संबंधों के द्वारा व्यवस्थित कर दिया जाता है तो इसे हम एक 'फूलमाला' कहते हैं। इसी तरह जब बहुत-से व्यक्ति और समूह एक-दूसरे से व्यवस्थित रूप से सम्बन्धित हो जाते हैं तब इससे जो कुछ बनता है उसी को हम 'समाज' कहते हैं । जिस तरह माला में किसी एक फूल का अस्तित्व दूसरे फूलों से स्थापित सम्बन्धों के बिना नहीं है,उसी तरह समाज की इकाई के रूप में व्यक्तित्व का अस्तित्व तभी तक है जब तक वह दूसरी इकाइयों के साथ सम्बन्धों के द्वारा बँधा हुआ है। सम्बन्धों की लड़ी से अलग होते ही एक सामाजिक इकाई के रूप ,एँ उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार बहुत-से व्यक्तियों और समूहों द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित रहने के कारण सम्बन्धों का जो व्यापक जाल बन जाता है उसी को मैकाइवर ने 'समाज 'कहा है। यह सम्बन्धों का जाल जिस स्वरूप का होता है, समाज का स्वरूप भी वैसा ही बन जाता है। इसका तात्पर्य है की जब कभी सम्बन्धों की प्रकृति में परिवर्तन होता है, समाज के स्वरूप में भी परिवर्तन दिखायी देने लगता है। उदाहरण के लिए, प्राचीन कल में अध्यापक और शिष्य के बीच जो सम्बन्ध थे, वे आज नहीं रहे। 19 वीं शताब्दी में मिल-मालिकों और मजदूरों के बीच जो सम्बन्ध थे, 20 वीं शताब्दी में वे बिल्कुल बदल गये; कुछ ही समय पहले तक परिवार में कर्ता और दूसरे सदस्यों के बीच जो सम्बन्ध थे, उनमें आज महकन परिवर्तन हो गया है। इस प्रकार जब कभी भी सामाजिक इकाइयों के बीच सम्बन्धों का रूप बदलता है तो इससे समाज के स्वरूप में भी परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है।
आब प्रश्न यह उठता है की सामाजिक सम्बन्ध क्यों बनते हैं ? और कैसे बनते हैं ? पहले प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि व्यक्ति की आवश्यकताएँ संख्या में इतनी अधिक हैं की सभी को वह अकेले ही पूरा नहीं कर सकता। अपनी जैविकीय, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं के कारण कोई भी व्यक्तित्व अकेले रहकर जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। यही परिस्थितियाँ विभिन्न व्यक्तियों को एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देती हैं। अब रहा दूसरा प्रश्न की सम्बन्ध 'कैसे' बनते हैं ? हम जानते हैं कि हमारे सम्बन्ध सभी लोगों से एक जैस नहीं होते। हम किसी व्यक्ति से किस प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करेंगे, यह हमारे सामाजिक मूल्यों पर निर्भर होता है। सामाजिक मूल्यों के अनुसार ही हम किसी स्त्री से माँ का सम्बन्ध रखते हैं तो किसी से पत्नी का सम्बन्ध, किसी से बहन का सम्बन्ध होता है तो किसी से मित्रता का सम्बन्ध। इसी प्रकार अन्य स्त्रियों से हमारा सम्बन्ध शिक्षिका, पुत्री, भाभी, साली अथवा सेविका आदि का हो सकता है। इस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण इस बात पर निर्भर होता है कि हमारे सामाजिक मूल्य किस व्यक्ति से हमें कैसे सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति देते हैं। जब समाज के इन कायदें-कानूनों अथवा सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होता है, तब सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति भी बदलेने लगती है। इस दृष्टिकोण से डा० राधकमल मुकर्जी का कथन है कि समाजशास्त्र को समझने के लिए सामाजिक मूल्यों का अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि (क) समाजशास्त्र समाज का अध्ययन है, (ख) समाज को समझने के लिए सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समझना आवश्यक है तथा (ग) सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति को सामाजिक मूल्यों के अध्ययन द्वारा ही समझा जा सकता है। इस प्रकार संक्षेप में, समाजशास्त्र सामाजिक मूल्यों से प्रभावित सामाजिक सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन है।
गिलिन और गिलिन गिन्सबर्ग, हाबहाउस और ग्रीन ने समाजशास्त्र की परिभाषा को दूसरा मोड दिया। गिलिन और गिलिन के अनुसार "व्यक्तियों के रूप के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली 'अन्तर्क्रियाओं' के अध्ययन को ही समाजशास्त्र कहा जा सकता है।" गिलिन का विचार है कि यदि समाजशास्त्र और समाज को समझने के लिए सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करना जरूरी है तो यह कार्य सामाजिक अन्तर्क्रियाओं को समझे बिना नहीं किया जा सकता। जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति अथवा समूह जागरूक होकर एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं और एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं, तब इस दशा का नाम ही अन्तर्क्रिया है। समजीक सम्बन्धों का निर्माण इसी अन्तर्क्रिया के द्वारा होता है। कुछ सम्बन्ध ऐसे भी होते हैं जहाँ यह अन्तर्क्रिया नहीं पायी जाती। ऐसे सम्बन्धों का समाजशास्त्र में अध्ययन नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, यदि किसी कमरे में एक व्यक्ति गहरी नींद में सो रहा हो और एक चोर वहाँ चोरी करके सामान ले जा रहा है तो वहाँ पर चोर और सोने वाले व्यक्ति मे अन्तर्क्रिया न होने के कारण समाजशास्त्र में ऐसे सम्बन्ध का अध्ययन नहीं होगा। इसी प्रकार जादू के खेल में जादूगर और दर्शकों के सम्बन्ध को भी सामाजिक सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता। इसका तात्पर्य है कि समाजशास्त्र को सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन कहकर परिभाषित किया जना चाहिए। इस आधार पर गिन्सबर्ग का कथन है कि "समाजशास्त्र मानवीय अन्तर्क्रियाओं तथा "अन्तर्सम्बन्धों, उनके कारणों और परिणामों का अध्ययन है।" हाबहाउस के शब्दों में, "समाजशास्त्र की विषय-वस्तु मानव मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली अन्तर्क्रियाएँ ही हैं।" सिमैल के अनुसार, "समाजशास्त्र मानवीय अन्तर्क्रियाओं के स्वरूपों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।"
तीसरी दृष्टिकोण मैक्स वेबर का है। आपका विचार है कि सामाजिक सम्बन्धों को समझने के लिए सामाजिक अंतक्रियाओं को समझना ही पर्याप्त नहीं है। अन्तर्क्रियाओं का निर्माण वास्तव में सामाजिक क्रियाओं से होता है, इसलिए सामाजिक क्रियाओं को समझे बिना समाजशास्त्र को नहीं समझा जा सकता। इस दृष्टिकोण से समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए वेबर का कथन है कि "समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध कराने का प्रयत्न करता है।" वेबर के अनुसार सामाजिक क्रियाएँ ही व्यक्ति के व्यवहार और अन्तर्क्रियाओं की प्रकृति को प्रभावित करती है। इनका अध्ययन व्याख्यात्मक बोध के द्वारा किया जा सकता है जर्मन भाषा में इस पद्धति को वेबर ने 'वर्स्टहीन' नाम दिया। उन्होंने बताया की इस अर्थ में समाजशास्त्र एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध किया जाता है। इस विचारधारा का समर्थन टाल्काट पारसन्स ने भी किया है पारसन्स का तो यहाँ तक विचार है कि सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे, सामाजिक सम्बन्धों, समाज और सामाजिक व्यवस्थाओं को 'क्रिया' की धारणा द्वारा ही समझा जा सकता है।
जान्सन का कथन है कि "समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है सामाजिक समूह सामाजिक अन्तर्क्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।" इस परिभाषा के द्वारा जॅान्सन ने यह स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र को केवल सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन कह देना से ही हमारा काम नहीं चल सकता। इसका कारण यह है कि सामाजिक सम्बन्ध बहुत साधारण भी हो सकते हैं ( जैसे-दो अपरिचित व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे को अभिवादन करना ) और बहुत घनिष्ठ भी ( जैसे-परिवार में सदस्यों द्वारा एक-दूसरे को सहायता करना ); यह सम्बन्ध शयोगपूर्ण भी हो सकते हैं और विरोधपूर्ण भी। इस स्थिति में यदि 'सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन' को ही समाजशास्त्र कह दिया जाये तो हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते। इसलिए अधिक अच्छा यह है कि समाजशास्त्र को हम सामाजिक समूहों का अध्ययन कहें। सामाजिक समूहों से जॅान्सन का तात्पर्य व्यक्तियों से नहीं बल्कि व्यक्तियों के बीच उत्पन्न होने वाली अन्तर्क्रियाओं की व्यवस्था से है स्वयं जॅान्सन के शब्दों में, "समाजशास्त्र के अन्दर मनुष्यों में हमारी रुचि केवल वहीं तक है जहाँ तक वे सामाजिक अन्तर्क्रियाओं की व्यवस्था में भाग लेते हैं।" इस प्रकार जॅान्सन के अनुसार समाजशास्त्र में उन्हीं सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है जो सामाजिक अन्तर्क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में, अन्तर्क्रियएँ ही समूहों का निर्माण करती है और समाजशास्त्र इन्ही समूहों का वैज्ञानिक अध्ययन है। जॅान्सन की इस विवेचना से स्पष्ट होता है कि आपने समाजशास्त्र को 'समूहों का अध्ययन' कहने के बाद भी अप्रत्यक्ष रूप से यही स्वीकार किया है की समाजशास्त्र सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का व्यवस्थित अध्ययन है।
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष दिया जा सकता है कि समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित अध्ययन करता है तथा सामाजिक सम्बन्धों के विवेचन के लिए सामाजिक क्रिया, सामाजिक अन्तरक्रिया और सामाजिक मूल्यों के अध्ययन को आवश्यक मानता है।



फेयरचाइल्ड ने इन सभी परिभाषाओं का समन्वय करते हुए कहा है कि "समाजशास्त्र मानव-समूहों के पारस्परिक सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाले तथ्यों का वैज्ञानिक अध्ययन है। वह व्यक्ति और मानवीय पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन है।" इस प्रकार समाजशास्त्र की वास्तविक विषय-वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है।
स्टीवर्ट ने बहुत सन्तुलित शब्दों में समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए कहा है कि "समाजशास्त्र एक ऐसे व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक विषय है जो एक सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य का, उसके समाज और विभिन्न समूहों का, उनकी प्रथाओं एवं संस्थाओं का तथा मनुष्य द्वारा विकसित उन सभी प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है जो समाज को स्थिर बनती हैं अथवा उसमें परिवर्तन उत्पन्न करती है।" इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र वह वैज्ञानिक ज्ञान है जो समाज, सामाजिक समूहों, सामाजिक मूल्यों तथा सामाजिक प्रक्रियाओं से सम्बन्धित प्रश्नों का अध्ययन करके सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए उपयोगी निष्कर्ष प्रदान करता है। पूर्व पृष्ठ पर दिया गया चित्र इसी कथन को सार रूप में स्पष्ट करता है।

KEY:-#समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा #Meaning and Definition of Sociology #samaajashaastr ka arth evan paribhaasha